आलेख : एक नज़रिया जिसने कुचल दिया आईन और निज़ामे जम्हूरियत

।। ताजुद्दीन अंसारी ।।

भारत में आज़ादी के बाद आवाम ने RSS और हिंदू महासभा के हिंदुत्व के नज़रिए को कुचल कर सैकुलर आईन और जम्हूरी निज़ाम क़ायम किया लेकिन आज उसे कुचलकर हिंदुत्व अपनी तारीख लिख रहा है। आईन और निज़ामे जम्हूरिया घुट घुट कर आखिरी सांसे ले रहा है। आखिर इतने बड़े बदलाव की बजूहात क्या है? इसे जानने के लिए हमें पिछली तारीख को जानना जरूरी है।
भारत में सनातन धर्म (हिंदू मजहब) की तारीख बहुत पुरानी है लेकिन इस मजहब के अंदर मनुवादी सोच और सती के रिवाज ने इसे खोखला कर दिया। वर्ण भेद, जाति पात और ऊंच-नीच ने इसमें दरारे डाल दी। एक खास तबका सवर्ण ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया वगैरह शुद्र यानी धोबी, जाटव, हरिजन जैसे दलित तबके के साथ ना सिर्फ छुआछूत बल्कि उनके साथ जानवरों से भी बदतर सुलूक किया करते थे।
अरब की सरजमीं से जब इस्लाम मजहब वजूद में आया तो पैग़ंबरे इस्लाम ने एक खुदा होने के साथ ही यह पैगाम दिया कि सभी इंसान हजरत आदम की औलाद है। इस्लाम में सभी बराबर हैं। जैसा कि कुरान में है कि किसी अरबी को अज़्मी, अज़्मी को अरबी पर और किसी गोरे को काले पर और काले को गोरे पर फजीलत हासिल नहीं है, फजीलत की बुनियाद परहेजगारी और तकवा है। अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है। हालांकि इस्लाम मजहब आने से दूसरे मजहब के कट्टरवादी लोग दुश्मन बन गए, फिर भी बहुत बड़ी तादाद में दूसरे मजाहिब के लोग इस्लाम में दाखिल हो गए और चंद सालों में ही मजहब इस्लाम पूरी दुनिया में फैल गया।
यूं तो भारत में चंद सूफी बुजुर्गाने दीन ने आकर इस्लामी तालिमात और मुहब्बत व भाईचारे का पैगाम दिया और बहुत बड़ी तादाद में इस्लाम मज़हब से मुतास्सिर होकर व मनुवादियों के सताये लोग हिन्दू मज़हब को छोड़कर मुसलमान बन गए। लेकिन सबसे पहले सन 629 में केरल का एक हिन्दू राजा चेरामन पेरुमल खुद अपनी खुशी से अरब जाकर अपना राज सिंघासन छोड़कर मजहबे इस्लाम में पैग़म्बरे इस्लाम के सामने शामिल हुआ। आज भी भारत की पहली मस्ज़िद उसी राजा के नाम पर कोडूगुल्लुर (केरल) में एक ज़िंदा सबूत है। भारत में लगभग 800 साल मुस्लिम हुकूमत रही और मुहब्बत भाईचारा और गंगा जमुनी तहजीब खड़ी करके दुनिया में मिशाल पेश की। इन बादशाहों ने क़िले, मकबरे तो बनबाये लेकिन दीनी तालीम के इदारे नहीं बनबाये। जो मुसलमानों की कमजोरी का सबसे बड़ा सबब रहा। भारत की इस भाईचारगी और गंगा जमुनी तहजीब को इस्लाम के पैदायशी दुश्मन अंग्रेज और यहूदी पचा नहीं पाए और तिजारत के बहाने भारत में आकर इस तहजीब को मिटाने के लिए हिन्दू मुसलमानों के दरमियान मजहबी तौर पर नफरत के बीज बो दिए। जिससे कट्टर वादी तंजीमें आरएसएस, हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसी तंजीमें वजूद में आईं। फूट का फायदा उठाकर हुकूमत पर काबिज़ होकर भारत को गुलाम बना लिया और आवाम पर बेइंतहा ज़ुल्मों सितम ढाये। फिर भी कट्टर वादी संगठन आरएसएस, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग आदि उनके एजेंट बनकर काम करते रहे। इन संगठनों के वर्कर मज़हबी तौर पर एक दूसरे को दुश्मन समझने लगे। जैसा कि संघ संचालक गुरु गोवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ़ थॉट’ में कम्युनिस्टों और मुसलमानों को देश का सबसे बड़ा दुश्मन बताया है।
वहीं मुल्क़ की आवाम अपनी हज़ारों साल पुरानी गंगा जमुनी तहजीब और वतन की ख़ातिर कांग्रेस, मोमिन अंसार कांफ्रेंस व दीगर हमख्याल सियासी तंजीमों के साथ मिलकर गाँधी जी जो सभी मजाहिब की इज़्ज़त किया करते थे, उनकी व दीगर लीडरों की रहनुमाई में आज़ादी की जंग लड़कर वतन पर जान कुर्बान कर रहे थे। सन 1917 में जब अंग्रेजों ने गांधी जी को जान से मारने की साजिश रची तो एक गरीब बाबरची बतख मियां अंसारी ने अपनी जान की परवाह न करके अंग्रेजों की साजिश को नाकाम कर दिया और गांधी जी की जान बचा ली। गांधी जी ने इस्लामी तालिमात से मुतास्सिर होकर न सिर्फ छुआछूत के खिलाफ जंग लड़ी बल्कि जंगे आज़ादी में भी शामिल हुए। उन्होंने एक बार अपनी स्पीच में कहा कि मैंने हज़रत इमाम हुसैन से सीखा कि जब ज़ुल्मों सितम हो रहा हो जीत हासिल कैसे की जाती है। लाखों सियासी व मज़हबी रहनुमाओं की जान कुर्बान होने के बाद मुल्क को आज़ादी की सुबह देखने को तो मिल गई लेकिन अंग्रेजों के एजेंटों की वजह से मुल्क को बंटवारे का दंश झेलना पड़ा। इस बंटवारे से सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों को ही झेलना पड़ा जो दो हिस्सों में बाद में तीन हिस्सों में बंट गए। गांधी जी व दूसरे कांग्रेसी नेताओं की सेकुलर जम्हूरिया निज़ाम देने की अपील पर वतन परस्त मुसलमानों ने भारत में रहना पसंद किया। मुल्क का बंटवारा भी इस्लाम दुश्मन अंग्रेजों की साज़िश थी जिन्होंने जहां आरएसएस को इस्लामी तालिमात के तहत मुत्तहिद होने और सब्र से काम लेने का दर्स दिया। वहीं मुस्लिम लीग के नेताओं को हुकूमत का लालच देकर भड़काया। बंटवारे के बाद भी जब गांधी जी की अपील पर मुसलमान भारत में रुक गए तो कट्टरवादी हिंदू संगठन गांधी जी की जानी दुश्मन बन गया और हिंदू महासभा के वर्कर ने गांधी जी की हत्या कर दी। जो आज़ाद मुल्क़ की पहली आतंकी घटना थी। हत्या के बावजूद भी हिंदू संगठनों के हिंदू राष्ट्र बनाने के मंसूबे पूरे नहीं हो सके और मुल्क की अमन पसंद और वतन परस्त आवाम ने मुल्क के पहले पार्लियामेंट के इंतखाब में कांग्रेस को भारी अक्सरियत से जिताकर सैकुलर आईन और जम्हूरी निज़ाम पर मोहर लगाकर गांधी जी को खिराजे अकीदत पेश की। वहीं आरएसएस की सियासी पार्टी जनसंघ को सिर्फ 2 सीटों पर उसकी औकात दिखा दी। आज़ादी के बाद मुल्क में सेकुलर आईन और निज़ामे जम्हूरिया क़याम में आया जिसमें सभी मज़ाहिब के लोगों को बराबर का हक़ हासिल हुआ। लेकिन पिछले आठ सालों से मुल्क के अंदर आरएसएस की सियासी पार्टी भाजपा हुकूमत पर काबिज़ है और आईन की कसमें खाकर भी आईन, निज़ामे जम्हूरिया, सेकुलरिज़्म और गंगा जमुनी तहजीब को कुचल कर मुसलमानों पर ज़ुल्मों सितम ढहाकर मुल्क में मुसलमानों की पहचान मिटाने और हिन्दू राष्ट्र बनाने पर आमादा है। सबसे अहम सबाल यह है कि दो सीटों से आज हुकूमत तक पहुंचाने वाले कौन हैं? क्या मुसलमानों को सेकुलरिज्म के नाम पर भारत मे रोकना भी कोई साज़िश का हिस्सा था और मुस्लिम रिजर्वेशन खत्म कर उन्हें तालीमी, माली, मुआसरी और सियासी सूबों में उसे कमजोर करना क्या दूरंदेशी मिशन था? यह वो सवाल है जो हर वक़्त दिमाग मे घूमते रहते हैं। कि सेकुलर कहलाने वाली पार्टियां आखिरकार मुल्क के हालात पर खामोश क्यों हैं?
मेरा जाती (निजी) खयाल यह है आर एस एस सी इस बड़ी कामयाबी के पीछे उसका अनुशासन और पक्का इरादा है जिसने इस्लामी तालीम से सबक लेकर हिंदू समाज के बीच बराबरी की अलख जगाई और मजहब की बुनियाद पर पोलराइजेशन करने में कामयाब रही वही तालीम इस्लाम सब्र की हिदायत देता है जिसे संघ परिवार ने 100 साल से करके दिखाया और अपने मिशन में लगे रहे उसने अपनी तालीमी इदारे शिशु मंदिर खोले। जिनमें तालीम हासिल करके कट्टर हिंदू नजरिए के लोग सामने आए और आला तालीम हासिल कर आज जम्हूरियत के लिए चारों सतून विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया पर आज काबिज है। अपने मकसद को हासिल करने के लिए आरएसएस ने जो भी किया वह उसके मिशन का हिस्सा है जो काबिले तारीफ है। वही दूसरी ओर मुस्लिम समाज भी अपनी बदहाली और तबाही के लिए कम जिम्मेदार नहीं है जिन्होंने इस्लामी तालिमात को नजरअंदाज कर आपसी भाई चारा, खानकाही तालीम, इस्लामी रस्मों रिवाज़ व तालीम से दूर होकर मरकज़, मसलक, फिरकों, सिलसिलों में बंटकर अपनी अलग अलग पहचान बनाने, नए खिताब पाने और दुनियाबी फायदा हासिल करने में उलझते चले गए। इसमें हमारे आलिमेदीन भी पीछे नहीं रहे। यहां तक कि एक मशहूर आलिमे दीन ने भारत में मनुवादी हिंदुओं की तर्ज़े अमल पर एक फ़तवा दिया कि जैसे हिंदुओं में ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर मोआजिज कौमे हैं वैसे ही भारत में मुसलमानों में तीन कौमे हैं। सैय्यद, मीर, खान और बेग मोअज्जिज (शरीफ) कौमें हैं बाकी सभी कौमे रज़ील हैं। इस फ़तवे से मुस्लिम कौम को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचा। जैसा कि भीमराव अम्बेडकर इस्लाम मे दाखिल होना चाहते थे लेकिन इस फ़तवे की बुनियाद पर शामिल नहीं हुए बल्कि लाखों लोगों के साथ वौद्ध धर्म में चले गए। इस इख्तिलाफ का फायदा आरएसएस ने उठाया और सेकुलरिज्म का चोला पहनाकर मुसलमानों के हिमायती बनाकर सियासी मैदान में उतार दिया और मुसलमान बिन सोंचे समझे उनके पीछे लगे रहे और आज भी हैं। जिन्हें दीन के रहबर बनकर लोग गुमराह कर रहे हैं।
मौजूदा दौर में जहां आरएसएस मुसलमानों को मिटाने में लगी है वहीं तालीमी, सियासी, माली, समाजी हालात बेहद खराब होती जा रही है। लेकिन मुसलमानों को सब्र के साथ काम करके उन सेकुलर जमातों को पहचानने की जरूरत है जो आईन और जम्हूरिया को बचाने के लिए आगे आएं और जरूरत है इन जमातों को मुत्तहिद होने की। मुस्लिम समाज आपसी इख्तिलाफ भूल कर मुत्तहिद होकर न सिर्फ अपने हक़ की लड़ाई लड़े बल्कि हुकूमत में हिस्सेदार बने। आज भी सेकुलर लोगों की तादाद भाजपा से ज्यादा है लेकिन अलग अलग बंटे होने की वजह से कामयाब नहीं होते हैं। अगर इसी तरह सेकुलर ख्याल लोग बंटे रहे तो वो दिन दूर नहीं कि मुल्क से सेकुलरिज्म और जम्हूरियत का नाम भी न रहेगा।

(इस आलेख के लेखक राजनीतिक विश्लेषक और एक सामाजिक संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

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